इस संसार की वास्तविकता इन्द्रियों की अनुभूति पर आधारित अवधारणाओं का प्रतिबिम्ब मात्र है, और इसलिए, जिसकी सोच जैसी उसके लिए वास्तविकता का परिदृश्य वैसा, फिर बात चाहे विभिन्न जीवों की कि जाए या व्यक्तिगत स्तर पर यथार्थ के प्रति दृष्टिकोणों की विविधता की; यथार्थ के निष्कर्ष में अंतर का यही कारन है। गलत कोई नहीं, पर हर कोई सही भी नहीं; आखिर जो जितनी ऊंचाई पर होगा उसे उतना दूर तक दिखेगा; हो सकता है, खिड़की के बहार दीवार दिख रही हो जिससे दृष्टि बाधित हो सकती है पर छत पर खड़े होकर उस दीवार को हटाए बिना उसके पार तक देखा जा सकता है। कहने का तात्पर्य केवल इतना है की वर्त्तमान की समस्याओं से कौन अवगत व् प्रभावित नहीं, पर , सबके निष्कर्ष में अंतर उनके सोच के स्तर को ही प्रस्तुत करता है। इसलिए, यथार्थ के परिदृश्य को बदलने के लिए सामाजिक सोच के स्तर में सुधार ही एक मात्र विकल्प है। किसी भी विषय में दृश्टिकोण का अंतर समस्या नहीं बल्कि वह मानसिकता है जिसके लिए निर्णायक बनना विचारशील बनने से अधिक सरल व् व्यावहारिक है; अगर शिक्षा की ही बात की जाए तो पुस्तकों में संकलित ज्ञान का अध्यन ही शिक्षा का उद्देश्य नहीं बल्कि व्यक्ति में परिस्थितियों के अध्यन द्वारा समस्याओं को समझ पाने की योग्यता का विकास करना और उन समस्याओं का समाधान सोच पाने की क्षमता को विकसित करने में ही शिक्षा की सार्थकता है, ऐसे में, होना क्या चाहिए और हो क्या रहा है ।
समाज में व्यक्ति के दृष्टिकोण, मानसिकता और सोच को किसी भय, दबाब अथवा प्रलोभन से कुछ हद तक नियंत्रित तो किया जा सकता है पर उसे बदलने के लिए उदाहरण के रूप में नए विश्वसनीय कारन को प्रस्तुत करना ही एक मात्र तरीका है। जब तक समाज में बहुमत को अपनी मानसिकता, सोच और दृष्टिकोण को बदलने का कोई व्यावहारिक कारन नहीं मिलता अनुकूलन से प्रभावित उनके जीवन शैली में परिवर्तन लाना कठिन होगा। क्योंकि तब, परिस्थितियों से समझौता करना जीवन के लिए व्यवहारिक और उनके परिवर्तन का समस्या बनना स्वाभाविक है ; दुर्भाग्यवश, यही तो वर्त्तमान का सच है !
ऐसे में हमें क्या करना चाहिए, परिस्थितियों के परिवर्तन के लिए किसी चमत्कार की प्रतीक्षा या प्रतिकूल को अनुकूल में परिवर्तित करने के लिए अपने स्तर पर यथा संभव प्रयास ; आप ही बताएं !
यथार्थ की वास्तविकता के सन्दर्भ में जीवन के पास केवल दो ही विकल्प हैं, या तो वो यथार्थ के परिदृश्य के आधार पर अपने विश्वास व् मान्यता का निर्माण करे या फिर अपने विश्वास व् मान्यताओं के आधार पर यथार्थ के परिदृश्य को समझने की कोशिस करे।
समाज में व्यक्ति के दृष्टिकोण, मानसिकता और सोच को किसी भय, दबाब अथवा प्रलोभन से कुछ हद तक नियंत्रित तो किया जा सकता है पर उसे बदलने के लिए उदाहरण के रूप में नए विश्वसनीय कारन को प्रस्तुत करना ही एक मात्र तरीका है। जब तक समाज में बहुमत को अपनी मानसिकता, सोच और दृष्टिकोण को बदलने का कोई व्यावहारिक कारन नहीं मिलता अनुकूलन से प्रभावित उनके जीवन शैली में परिवर्तन लाना कठिन होगा। क्योंकि तब, परिस्थितियों से समझौता करना जीवन के लिए व्यवहारिक और उनके परिवर्तन का समस्या बनना स्वाभाविक है ; दुर्भाग्यवश, यही तो वर्त्तमान का सच है !
ऐसे में हमें क्या करना चाहिए, परिस्थितियों के परिवर्तन के लिए किसी चमत्कार की प्रतीक्षा या प्रतिकूल को अनुकूल में परिवर्तित करने के लिए अपने स्तर पर यथा संभव प्रयास ; आप ही बताएं !
यथार्थ की वास्तविकता के सन्दर्भ में जीवन के पास केवल दो ही विकल्प हैं, या तो वो यथार्थ के परिदृश्य के आधार पर अपने विश्वास व् मान्यता का निर्माण करे या फिर अपने विश्वास व् मान्यताओं के आधार पर यथार्थ के परिदृश्य को समझने की कोशिस करे।