आज समाज में व्यक्ति वैचारिक रूप से निर्धन और नैतिक रूप से दुर्बल है, इसीलिए, धन शक्तिशाली हो गया है और समाज धर्म के बल से नहीं बल्कि धन के बल से शाषित है। अगर धन सचमुच इतना आवश्यक होता तो ईश्वर पेड़ों में पत्तों के बजाये पैसे उगाते पर ऐसा इसलिए नहीं होता क्योंकि धन का सृजन ईश्वर ने नहीं बल्कि मनुष्य ने अपने जीवन को सरल बनाने के उद्देश्य से किया था पर आज दुर्भाग्यवश जीवन का संसाधन ही जीवन का उद्देश्य बन गया है और यही सामाजिक जीवन की समस्त समस्याओं का स्त्रोत है। ब्रह्मांडीय चेतना ने जैविक चेतना के रूप में शरीर को इसलिए धारण किया था ताकि हम शरीर के माध्यम से सृष्टि की सम्पूर्णता में अपने विशिष्ट योगदान से न केवल अपने पात्र की भूमिका के लिए महत्व अर्जित कर सकें बल्कि अपने प्रयास से संतुष्टि की अनुभूति को भी प्राप्त कर सकें पर जब से हमने अपने आप को ब्रह्मांडीय चेतना के अंश के बजाये यह शरीर मान लिया हमारी प्राथमिकताएं ही गलत हो गयी, तभी,जीवन के लिए सुख का महत्व संतुष्टि से अधिक है। सुख प्राप्ति में है और संतुष्टि देने में, ऐसे में, प्रश्न यह उठता है की जब इस भौतिक संसार में हमारा कुछ है ही नहीं तो हम किसी को क्या दे सकते हैं और तब संतुष्टि की प्राप्ति कैसे संभव होगी; इसी दृष्टि से जीवन के प्रयास के प्रयोजन और उनके प्रति निष्ठा और समर्पण का महत्व है। परिस्थितियों को बदलने के लिए समस्या के प्रति दृष्टिकोण को बदलना होगा और समाधान की संभावनाओं को महत्वपूर्ण बनाना होगा जो केवल ज्ञान से संभव है। इसलिए किसी भी समाज में शिक्षा के माध्यम से ही व्यक्ति के विवेक के विकास की सम्भावना होती है पर अगर बाज़ारवाद के प्रभाव में शिक्षा का ही व्यावसायीकरण कर दिया जाए तो स्वाभाविक है की ऐसे समाज का भविष्य चिंता का विषय होगा। यही वर्तमान के भारत की भी समस्या है जिसका निवारण व्यवस्था के सूत्रधार द्वारा ही संभव है क्योंकि सामाजिक व्यवस्था में पदों को ही संविधान ने समस्त शक्तियां प्रदान की है और यही व्यवस्था परिवर्तन के सन्दर्भ में सामाजिक नेतृत्व के भूमिका का महत्व भी; ऐसे में, अगर कोई समाज किसी भी प्रभाव में अपने लिए योग्य नेतृत्व का चयन कर पाने में सक्षम न हो तो वह अपने नियति का दोषी स्वयं होगा।"
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Nice article,,,.....
ReplyDeleteNice
ReplyDeleteबहुत सुन्दर artical भाई
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